31. इस रहस्यपूर्ण संकेत में यह बताया गया है कि यज्ञाग्रि की मूर्धा भौतिक और आध्यात्मिक दोनों हैं। 32. ऋ के लिये मूर्धा का अंतिम हिस्सा तथा लृ के लिये दन्तमूल उप-उच्चारण स्थान माने गये हैं। 33. ऋ के लिये मूर्धा का अंतिम हिस्सा तथा लृ के लिये दन्तमूल उप-उच्चारण स्थान माने गये हैं। 34. ध्यान मुद्रा में शान्त चित्त से बैठकर जिह्वाग्र भाग को तालु मूर्धा से लगाया जाता है ।। 35. ध्यान मुद्रा में शान्त चित्त से बैठकर जीभ के अगले भाग को तालु मूर्धा से लगाया जाता है। 36. जबकि देवनागरी के वर्ण उच्चारण स्थान के अनुसार सजे हुए हैं जैसे- कंठ , तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ आदि। 37. परम आत्मज्ञानी के तौर प्रतिष्ठित याज्ञवल्क्य ने झल्लाकर आखिर कह ही दिया- ' गार्गी, माति प्राक्षीर्मा ते मूर्धा व्यापप्त्त्'। 38. ‘ण ' का उच्चारण मूर्धा के सबसे ऊपरी हिस्से में होता है, ये मूर्धा का मूल भाग माना गया है। 39. ‘ण ' का उच्चारण मूर्धा के सबसे ऊपरी हिस्से में होता है, ये मूर्धा का मूल भाग माना गया है। 40. श को तालु में , ष को मूर्धा में और स को दन्त में जीभ लगा कर बोला जाता है।