में जीवानन्द विद्या सागर ने कलकत्ता से एक संस्करण प्रकाशित किया जिसमें 19 वें अध्याय के अंत में ‘ कर्मविपाक ' नामक प्रकरण जोड़ दिया गया।
12.
ये नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन चारों गतियों में बार-बार पैदा होते और मरते हैं तथा जैसा उनका कर्मविपाक होता है तदनुसार वे वहाँ अच्छा-बुरा फल भोगते हैं।
13.
गौतम धर्मसूत्र में अनेक पाठ-भेद भी उपलब्ध होते हैं तथा कई पाण्डुलिपियों में कर्मविपाक पर एक पूरा प्रकरण जोड़ दिया गया, जिस पर हरदत्त की व्याख्या नहीं है।
14.
मृत्यु के बाद के और्ध्वदैहिक संस्कार, पिण्डदान (दशगात्रविधि-निरूपण), तर्पण, श्राद्ध, एकादशाह, सपिण्डीकरण, अशौचादिनिर्णय, कर्मविपाक, पापों के प्रायश्चित्त का विधान आदि वर्णित है।
15.
प्रतीत होता है कि श्राद्ध द्वारा पूजा-अर्चना प्राचीन प्रथा है और पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन हैं और हिन्दू धर्म ने, जो कि व्यापक है (अर्थात् अपने में सभी को समेट लेता है)
16.
जीव मरने पर कहाँ जाता है? मृत्यु पश्चात जीव कहाँ जाता है-इसके लिये कोई समान सार्वतिक नियम नहीं है किन्तु प्रत्येद जीवन की स्व-स्व-कर्मानुसार विभिन्न गति होती है यही कर्मविपाक का सर्वतंत्र सिद्धांत है।
17.
कर्म, पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त में अटल विश्वास रखने वाले व्यक्ति इस सिद्धान्त के साथ कि पिण्डदान करने से तीन पूर्व पुरुषों की आत्मा को संतुष्टि प्राप्त होती है, कठिनाई से समझौता कर सकते हैं।
18.
प्रतीत होता है कि श्राद्ध द्वारा पूजा-अर्चना प्राचीन प्रथा है और पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन हैं और हिन्दू धर्म ने, जो कि व्यापक है (अर्थात् अपने में सभी को समेट लेता है) पुनर्जन्म आदि के सिद्धान्त ग्रहण करते हुए भी श्राद्धों की परम्परा को ज्यों कि त्यों रख लिया है।
19.
पुनर्जन्मवाद एवं परलोकवाद के सिद्धांतों से पुष्ट कर्मविपाक का यह सिद्धान्त दावा करता है कि भले ही एक पुण्य का काम इस जन्म में सुख उत्पन्न न करे, किन्तु वह किसी न किसी अगले जन्म में ऐसा करेगा अवद्गय और यह कि यदि कोई पापी व्यक्ति आज सुख का जीवन बिता रहा है तो उसने अवद्गय किसी पिछले जन्म में पुण्य का काम किया होगा।
20.
कर्मविपाक आगे कहता है, “कि कोई भी आत्मा बिना आशा के नहीं होती बशर्ते यह प्रतीक्षा के लिए तैयार हो और अपने बुरे कार्यों के लिए संताप के लिए तैयार हो, कि इसे उन कार्यों में पूर्वभासित अनेकानेक अस्तित्वों द्वारा भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है और कि आत्मा अपनी लंबी यात्रा और क्रमिक विकास में अंततः अपनी सच्ची महानता को पहचानने में सक्षम हो सके और शाश्वत शांति तथा पूर्णता को समझ सके.
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