प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न संतानों को इस धर्मसूत्र के प्रथम प्रश्न के नवम अध्याय में चाण्डाल, रथकार, कुक्कुट, वैदेहक, श्वपाक, पाराशव, निषाद आदि अनेक नामों से पुकारा गया है * कि सभी वर्णसंकर संतानें हैं जो वर्णों के परस्पर संबंधों से उत्पन्न हुई हैं।
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इसे पूर्वाग्रह ही कहा जाय कि इन मनीषियों का इस बात पर ध्यान नहीं गया कि धर्मशास्त्राों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ÷ अपवित्रा ' जातियों के मूल पूर्वजों ने वर्ण नियमों का अतिक्रमण कर प्रतिलोम विवाह किया था अतः उनके वर्णसंकर वंशज जन्म से ही अशुद्ध हो गये और उनके लिए केवल नीच और अतिशूद्र व्यवसाय ही निर्धारित हैं।
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के मूल में क्या है और यह स्थिति कैसे बदली जा सकती है? क्या समाज और उसकी रुढिवादिता इसके लिए जिम्मेदार नहीं है?समाज की संकीर्ण सोच आज भी गाँव,कस्बों में उस परिवार का जीना मुश्किल कर देते हैं जिसकी लड़की प्रतिलोम विवाह या विजातीय विवाह करती है,संकीर्ण सामाजिक सोच ही कन्या भ्रूण हत्या के लिए भी जिम्मेदार है,या तो वों परिवार इतना बोल्ड हो कि वो ताने देने वालों को करारा और तर्कपूर्ण जवाब दे सके तभी वो सामाजिक ताड़ना का मुकाबला कर सकता है,मैं मानती हूँ सामाजिक भय तथाकथित
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