हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकें: अधूरे गीत (हिन्दी-राजस्थानी) 1959 बीकानेर।सपन की गली (हिन्दी गीत कविताएँ) 1961 कलकत्ता।हँसिनी याद की (मुक्तक) सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर 1963।एक उजली नजर की सुई (गीत) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966 (दूसरा संस्करण-पंचशीलप्रकाशन, जयपुर)सुलगते पिण्ड (कविताएं) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966नश्टो मोह (लम्बी कविता) धरती प्रकाशन बीकानेर 1981सन्नाटे के शिलाखंड पर (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर1982।
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स्व. हरीशजी भादाणी की निम्नलिखित पुस्तके उल्लेखनीयं रही अधूरे गीत (हिन्दी-राजस्थानी) 1959, सपन की गली (हिन्दी गीत कविताएँ) 1961 कलकत्ता, हँसिनी याद की (मुक्तक) सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर 1963, एक उजली नजर की सुई (गीत) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966 (दूसरा संस्करण-पंचशीलप्रकाशन, जयपुर), सुलगते पिण्ड (कविताएं) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966, नश्टो मोह (लम्बी कविता) धरती प्रकाशन बीकानेर 1981, सन्नाटे के शिलाखंड पर (कविताएं)
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स्व. हरीशजी भादाणी की निम्नलिखित पुस्तके उल्लेखनीयं रही अधूरे गीत (हिन्दी-राजस्थानी) 1959, सपन की गली (हिन्दी गीत कविताएँ) 1961 कलकत्ता, हँसिनी याद की (मुक्तक) सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर 1963, एक उजली नजर की सुई (गीत) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966 (दूसरा संस्करण-पंचशीलप्रकाशन, जयपुर), सुलगते पिण्ड (कविताएं) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966, नश्टो मोह (लम्बी कविता) धरती प्रकाशन बीकानेर 1981, सन्नाटे के शिलाखंड पर (कविताएं)
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पिछले दिनों वातायान के इस अंक के लिए हिन्दी साहित्य जगत के पितामह श्री भारतेन्दु हरीशचंद्र जी के होली पर कुछ छन् द ढूँढ रहा था और मिल गयी यह ग़ज़ल | इसे मैने बीबीसी की वेबसाइट से लिया है | पढ़ते वक्त लगा कहीं कहीं कुछ टाइपिंग मिस्टेक्स हैं, इसलिए फिर से सर्च मारा | सभी जगह यह ग़ज़ल इसी रूप में मिली | मैने अपनी तरफ से कुछ शब्द इस में कोष्टक में रखते हुए जोड़े हैं ताकि पूरी ग़ज़ल को पढ़ने का आनंद आ सके | पता नहीं कि परम श्रद्धेय स् व.
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था यद्यपि भूला-भूला सा पर एक केन्द्र की तेजस्वी अन्वेष-लक्ष्य आँखों से उर में लाखों को अंकित करता तौलता रहा मापता रहा आधुनिक हँसी के सभ्य चाँद का श्वेत वक्ष खोजता रहा उस एक विश्व के सारे पर्वत-गुहा-गर्त मैंने प्रकाश-चादर की मापी उस पर पीली गिरी पर्त उस एक केन्द्र की आँखों से देखे मैंने एक से दूसरे में घुसकर आधुनिक भवन के सभी कक्ष उस एक केन्द्र के ही सम्मुख मैं हूँ विनम्र-अन्तर नत-मुख ज्यों लक्ष्य फूल-पत्तों वाली वृक्ष की शाख आज भी तुम्हारे वातायान में रही झाँक सुख फैली मीठी छायाओं के सौ सुख!
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