योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार जीवन दो भागों में बाँटा जा सकता है, क्रिया यानि कर्म, अक्रिया यानि अकर्म ।।
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चौथा चरण ही ध्यान है, जब आप बिलकुल अक्रिया में हो जाते हैं, जब मैं आपसे कहता हूं कि बिलकुल ठहर जाएं।
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लोग मेरे पास आते हैं और पूछते हैं कि मैं सक्रिय ध्यान क्यों सिखाता हूं-क्योंकि अक्रिया को पाने का यही एक उपाय है।
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यदि एक क्षण के लिये भी तुम अक्रिया में हो, बस “ स्व ” में हो-सम्पूर्ण विश्राम में-यह है ध्यान ।
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‘क्रिया के पहले तब तक अक्रिय रहना जब तक क्रिया सुरक्षित न हो जाय-संरक्षा कहलाती है। ' जबकि ‘आध्यात्म निरन्तर अक्रिया की स्थिति को कहते हैं।
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ऐसे अक्रियावाद की स्थापना से पहले अक्रियाया अर्थ था--विश्राम या कार्यनिवृत्ति, परन्तु चित्तवृत्तिनिरोध, मौन औरकायोत्सर्ग-एतद्रूप अक्रिया किसी महत्त्वपूर्ण साध्य की सिद्धी के लिएहै--यह अनुभवगम्य नहीं हुआ था.
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जब तक सहज न हो जाए समाधि, तब तक, तब तक निरंतर, निरंतर निश्चेष्ट होने की, अक्रिया में डूबने की, ध्यान की लीनता को खोजते ही रहना है।
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तो आपको सवाल उठेगा कि अगर अक्रिया ही करनी है, तो क्यों गहरी श्वास लेनी? क्यों नाचना-कूदना? क्यों चीखना-चिल्लाना? ये तो सब क्रियाएं हैं!
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शांत लोग होना चाहते हैं, आनंदित लोग होना चाहते हैं, लेकिन यह राज, यह सूक्ष्म सूत्र उन्हें खयाल में नहीं है कि आनंद अक्रिया का स्वभाव है, दुख किया का स्वभाव है।
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तो निरंतर उस एकतानता को, वह एकतानता सध सके, इसके लिए बार-बार हमें निश्चेष्ट होना, बार-बार हमें अक्रिया में डूबना, बार-बार ध्यान में लीन होने की प्रक्रिया जारी रखनी पड़ेगी।
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