21. इस प्रकार आत्मविद्या अर्थात् दर्शन को अब आन्वीक्षिकी अर्थात् अनुसंधानरूपी विज्ञान का सहारा मिल गया। 22. भारत के विद्याविद् आचार्यो ने विद्या के चार विभाग बताए हैं-आन्वीक्षिकी , त्रयी, वार्ता और दंडनीति। 23. उन्होंने उपलब्ध न्यायसूत्रों का प्रणयन किया तथा इस आन्वीक्षिकी को क्रमबद्ध कर शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठापित किया। 24. हेतुविद्या, हेतुशास्त्र, युक्तिविद्या, युक्तिशास्त्र, तर्कविद्या तथा तर्कशास्त्र आदि इस आन्वीक्षिकी विद्या के नामान्तर हैं। 25. तथापि ' न्यायभाष्य ' में वात्स्यायन ने स्पष्ट कहा है कि आन्वीक्षिकी का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ यही न्यायशास्त्र है। 26. [30] अत: वेदविद्या की तरह इस आन्वीक्षिकी को भी विश्वसृष्टा का ही अनुग्रहदान मानना चाहिए। 27. इस प्रकार गौतम का न्याय दर्शन हेतु विद्या और आत्म विद्या इन दोनों अर्थों में आन्वीक्षिकी सिद्ध हुआ। 28. इस प्रकार गौतम का न्याय दर्शन हेतु विद्या और आत्म विद्या इन दोनों अर्थों में आन्वीक्षिकी सिद्ध हुआ। 29. उनके मत से आन्वीक्षिकी अन्य तीनों विद्याओं के बलाबल (प्रामाण्य या अप्रामाण्य) का निर्धारण हेतुओं से करती हैं। 30. उन्होंने उपलब्ध न्यायसूत्रों का प्रणयन किया तथा इस आन्वीक्षिकी को क्रमबद्ध कर शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठापित किया।