द्रुत गति से बहता अविरल तन आच्छादित स्वेद कणों से ज्यों बिखरा हो वर्षा-जल पहुँचे हम उत्तंग शिखर पर जहाँ डोलता सुधा जलद गूँज उठा घननाद प्रबलतम लगा बरसने लरज लरज सिक्त हुआ प्राणों का कण कण अंतह अति सुरभित, मधुमय तरल हुए हिम खण्ड पिघलकर हुआ परस्पर पूर्ण विलय थमा ज्वार, थी शांति चतुर्दिक लहराता तन मन उपवन आधिपत्य औ पूर्ण समर्पण-एक साथ, था महामिलन
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सुभाष मित्तल सत्यम ने वृक्षों के द्वारा की जाने वाली प्राणियों की सेवा को प्रस्तुत कुण्डलिया में व्यक्त किया है-परम पिता की कृपा का, वृक्ष रूप साकार सभी प्राणियों के लिये, जीवन का आधार जीवन का आधार, नमी कर घन बरसाते वर्षा-जल गति रोक, भूमि जल सतह बढ़ाते भूमि अपरदन रोक, वृद्धि मृद-उर्वरता की ‘ सत्यम ' सचमुच वृक्ष, कृपा है परम पिता की।
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लेकिन बतौर ‘प्रतिमानीकरण ' के लिए ‘सरल' और ‘कठिन' शब्दों की पहचान करते हुए ‘समिति' ने पता नहीं देश के किस स्थान से प्रकाशित होने वाली कौन-सी पत्रिकाओं से उदाहरण दिया, वह निश्चय ही स्पष्ट रूप से बताता है कि उसकी दृष्टि में भोजन की जगह ‘लंच', क्षेत्र की जगह ‘एरिया', महाविद्यालय के बजाय ‘कॉलेज', वर्षा-जल के बजाय ‘रेन-वॉटर', नियमित की जगह ‘रेगुलर', श्रेष्ठतम पाँच के स्थान पर ‘बेस्ट फाइव', आवेदन की जगह ‘अप्लाई', छात्रों के बजाय ‘स्टूडेण्ट्स', उच्च शिक्षा के बजाय ‘हायर-एजुकेशन' आदि-आदि का प्रयोग भाषा के सरलीकरण में सहयोगी होगा।
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