21. असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, बाधित और सत्प्रतिपक्ष नामक दोषों से ग्रस्त होने के कारण हेत्वाभास कहलाते हैं। 22. अनुमानों में जो हेतु पेश किया जाता है, वह सदोष हो तो उसे हेत्वाभास कहते हैं। 23. अन्यथा इनमें से किसी एक के नहीं कहने पर हेतु हेतु नहीं रहकर हेत्वाभास हो जाता है। 24. सत्प्रतिपक्ष और बाधक अभाव तो उक्त दोनों हेत्वाभास के लक्षण करने पर स्वत: स्पष्ट हो जाएगा। 25. अनुमानों में जो हेतु पेश किया जाता है, वह सदोष हो तो उसे हेत्वाभास कहते हैं। 26. अनुमान में जो प्रकृत हेतु नहीं रहता है किन्तु हेतु की तरह प्रतीत होता है उसे हेत्वाभास कहते हैं। 27. इस हेत्वाभास के ज्ञान के बिना उक्त तीनों प्रकारों की कथा का अधिकार ही नहीं किसी को होता है। 28. किन्तु आचार्य उदयन ने न्यायकुसुमाञ्जलि [78] में हेत्वाभास के पाँच से अधिक प्रकारों को गौतमसम्मत नहीं कहा है। 29. हेतु के इन पाँच धर्मों में से किसी एक के नहीं रहने पर उक्त पाँच प्रकार के हेत्वाभास होते हैं। 30. जो हेतु साध्यधर्म का व्याघातक होता है अर्थात् साध्याभाव का साधक होता है वह विरुद्ध [75] नामक हेत्वाभास है।