होमोनिम्स को समानार्थी शब्दों के तौर पर तो खैर हिन्दी में हम सदा से प्रयोग करते आये हैं, “ प्रश्न है कि उत्तर क्या है? ” जैसी पहेलियों में, “ अंधेरी रात में दिया तेरे हाथ में ” जैसे द्विअर्थी कोंडकीय फिल्मी प्रसंगों में या फिर “ कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय, या खाए बौराए जग वा पाए बौराए ” जैसे नीतिवाक्यों में।
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कहा गया है कि-किस किस को याद कीजिये-किस किस को रोइये आराम बड़ी चीज है मुंह ढ़क के सोइये एक और शायर ने कहा है कि-' ' है किसी माने में मुफलिस के लिए सोना नही '' जिस तरह '' कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय '' उसी तरह उस सोने से इस सोने का महत्व ज्यादा है और सही तरीके से सोने की कला सीख कर ही आप सोने में सुहागा की कहावत को “ सोने में सुहाग ” होने को चरितार्थ कर सकते है।
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जैसा कि मैंने ऊपर कहा है कि उर्दू के इस दोष को हिन्दी-काव्य में गुण माना जाता है | हिन्दी की अनेक काव्य-पंक्तियाँ हैं जिनमें शब्दों के अन्तिम और प्रारंभिक अक्षरों में समीपता है | इस समीपता को महाकवि बिहारी के कई दोहों में देखा जा सकता है | इसका सर्वोतम उदाहरण उनके एक दोहे में देखिये-कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय उहिं खाय बौराय जग इहि पायेंहि बौराय “ कनक ” शब्द के “ क ” और “ क ” की समीपता कानों में रस घोल रही है।
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