उपरोक्त वर्णित आधार पर एवं ए. आई. आर 1983 सुप्रीम कोर्ट पेज 360 ए. आई. आर1996 सुप्रीम कोर्ट पेज 66,1999 जे. सीआर. सी 182 (सुप्रीम कोर्ट), ए. आई. आर. 1990 सुप्रीम कोर्ट पेज 79, ए. आई. आर 1979 सुप्रीम कोर्ट 1949,2005 (1) जे. सीआर. सी 660,2008 (8) एस. आर. जे. 329 सुप्रीम कोर्ट में दी गई विधि व्यवस्थाएॅ जो इस केस के तथ्यों व परिस्थितियों से मेल खाते हैं, को आधार मानते हुए अभियुक्त उस पर लगाये गये आरोपों से दोषमुक्त होने योग्य है।
32.
उपरोक्त वर्णित आधार पर एवं ए. आई. आर 1983 सुप्रीम कोर्ट पेज 360 ए. आई. आर. 1996 सुप्रीम कोर्ट पेज 66,1999 जे. सीआर. सी 182 (सुप्रीम कोर्ट), ए. आई. आर. 1990 सुप्रीम कोर्ट पेज 79, ए. आई. आर 1979 सुप्रीम कोर्ट 1949,2005 (1) जे. सीआर. सी 660,2008 (8) एसआर. जे. 329 सुप्रीम कोर्ट में दी गई विधि व्यवस्थाएॅ जो इस केस के तथ्यों व परिस्थितियों से मेल खाते हैं, को आधार मानते हुए अभियुक्त उस पर लगाये गये आरोपों से दोषमुक्त होने योग्य है।
33.
उपरोक्त वर्णित आधार पर एवं ए. आई. आर 1983 सुप्रीम कोर्ट पेज 360 ए. आई. आर. 1996 सुप्रीम कोर्ट पेज 66,1999 जे. सीआर. सी 182 (सुप्रीम कोर्ट), ए. आई. आर. 1990 सुप्रीम कोर्ट पेज 79, ए. आई. आर 1979 सुप्रीम कोर्ट 1949,2005 (1) जे. सीआर. सी 660,2008 (8) एसआर. जे. 329 सुप्रीम कोर्ट में दी गई विधि व्यवस्थाएॅ जो इस केस के तथ्यों व परिस्थितियों से मेल खाते हैं, को आधार मानते हुए अभियुक्त उस पर लगाये गये आरोपों से दोषमुक्त होने योग्य है।
34.
उपरोक्त वर्णित आधार पर एवं ए. आई. आर 1983 सुप्रीम कोर्ट पेज 360 ए. आई. आर. 1996 सुप्रीम कोर्ट पेज 66,1999 जे. सीआर. सी 182 (सुप्रीम कोर्ट), ए. आई. आर. 1990 सुप्रीम कोर्ट पेज 79, ए. आई. आर 1979 सुप्रीम कोर्ट 1949,2005 (1) जे. सीआर. सी 660,2008 (8) एसआर. जे. 329 सुप्रीम कोर्ट में दी गई विधि व्यवस्थाएॅ जो इस केस के तथ्यों व परिस्थितियों से मेल खाते हैं, को आधार मानते हुए अभियुक्त उस पर लगाये गये आरोपों से दोषमुक्त होने योग्य है।
35.
परिवादी की ओर से अपने पक्ष के समर्थन में न्याय दृष्टान्त-‘‘ सी. सी. अलवी हाजी विरूद्ध पाला पेट्टी मो0 एवं अन्य एम. पी. एच. टी. 2008 (3)-115 (एस. सी.) ", ‘‘ डीविनोद शिबप्पा विरूद्ध नंदा वेलीअप्पा ए. आई. आर. 2006 (एस. सी.)-2179", ‘‘ एम. देवराज विरूद्ध जानसन डी. सी. आर2005 (1)-219 मद्रास हाईकोर्ट ", ‘‘ आसूहाजी विरूद्ध के. आई. अब्दुल लतीफ एवं अन्य डी. सी. आर2004 (2)-463 केरला हाईकोर्ट" एवं ‘‘ के. एनबीना विरूद्धमुनीयप्पन एवं अन्य ए. आई. आर.-2001 (एस. सी)-2895 "पेश किये गये हैं।
36.
परिवादी की ओर से अपने पक्ष के समर्थन में न्याय दृष्टान्त-‘‘ सी. सी. अलवी हाजी विरूद्ध पाला पेट्टी मो0 एवं अन्य एम. पी. एच. टी. 2008 (3)-115 (एस. सी.) ", ‘‘ डीविनोद शिबप्पा विरूद्ध नंदा वेलीअप्पा ए. आई. आर. 2006 (एस. सी.)-2179", ‘‘ एम. देवराज विरूद्ध जानसन डी. सी. आर2005 (1)-219 मद्रास हाईकोर्ट ", ‘‘ आसूहाजी विरूद्ध के. आई. अब्दुल लतीफ एवं अन्य डी. सी. आर2004 (2)-463 केरला हाईकोर्ट" एवं ‘‘ के. एनबीना विरूद्धमुनीयप्पन एवं अन्य ए. आई. आर.-2001 (एस. सी)-2895 "पेश किये गये हैं।
37.
विधि की यह स्थिति स्पष्ट हैं कि अधिनियम, 1988 की धारा 20 (1) के तहत अभियुक्त के विरूद्ध अवधारणा खण्डनीय है तथा खण्डन का भार उतना गम्भीर नहीं होता जितना की अभियोजन पक्ष पर अपराध सिद्ध करने के सम्बन्ध में है, लेकिन न्यायिक विनिश्चय धनवन्तरी बनाम महाराष्ट राज्य ए. आई. आर. 1984एससी. पेज 575 में माननीय उच्चतम न्यायालय ने तय किया कि अभियुक्त पर यह भार उतना हल्का भी नही है जितना की साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 के तहत अवधारणा के सम्बन्ध में है।
38.
परिवादी की ओर से अपने पक्ष के समर्थन में न्याय दृष्टान्त-‘‘ सी. सी. अलवी हाजी विरूद्ध पाला पेट्टी मो0 एवं अन्य एम. पी. एच. टी. 2008 (3)-115 (एस. सी.) ", ‘‘ डीविनोद शिबप्पा विरूद्ध नंदा वेलीअप्पा ए. आई. आर. 2006 (एस. सी.)-2179", ‘‘ एम. देवराज विरूद्ध जानसन डी. सी. आर2005 (1)-219 मद्रास हाईकोर्ट ", ‘‘ आसूहाजी विरूद्ध के. आई. अब्दुल लतीफ एवं अन्य डी. सी. आर. 2004 (2)-463 केरला हाईकोर्ट" एवं ‘‘ के. एनबीना विरूद्धमुनीयप्पन एवं अन्य ए. आई. आर.-2001 (एस. सी)-2895 "पेश किये गये हैं।
39.
परिवादी की ओर से अपने पक्ष के समर्थन में न्याय दृष्टान्त-‘‘ सी. सी. अलवी हाजी विरूद्ध पाला पेट्टी मो0 एवं अन्य एम. पी. एच. टी. 2008 (3)-115 (एस. सी.) ", ‘‘ डीविनोद शिबप्पा विरूद्ध नंदा वेलीअप्पा ए. आई. आर. 2006 (एस. सी.)-2179", ‘‘ एम. देवराज विरूद्ध जानसन डी. सी. आर2005 (1)-219 मद्रास हाईकोर्ट ", ‘‘ आसूहाजी विरूद्ध के. आई. अब्दुल लतीफ एवं अन्य डी. सी. आर. 2004 (2)-463 केरला हाईकोर्ट" एवं ‘‘ के. एनबीना विरूद्धमुनीयप्पन एवं अन्य ए. आई. आर.-2001 (एस. सी)-2895 "पेश किये गये हैं।
40.
विधि की यह स्थिति स्पष्ट हैं कि अधिनियम, 1988 की धारा 20 (1) के तहत अभियुक्त के विरूद्ध अवधारणा खण्डनीय है तथा खण्डन का भार उतना गम्भीर नहीं होता जितना की अभियोजन पक्ष पर अपराध सिद्ध करने के सम्बन्ध में है, लेकिन न्यायिक विनिश्चय धनवन्तरी बनाम महाराष्ट राज्य ए. आई. आर. 1984 एस. सी. पेज 575 में माननीय उच्चतम न्यायालय ने तय किया कि अभियुक्त पर यह भार उतना हल्का भी नही है जितना की साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 के तहत अवधारणा के सम्बन्ध में है।
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