आज का दौर हताशा और निराशा का दौर है लोग राजनीति से परेशान हैं और कोई भी जनकवि नहीं आ रहा जो चीख के कहे ' उठो समय के घर्घर रथ का नाद सुनो, सिंहासन खाली करो के जनता आती है ' तो मैं आप सब से यही चाहता हूं कि आप अब से जो भी लिखें उसमें आज का चित्रण हो ।
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कब मक्का सी पीली धूप, हरी अँबियोँ से खेलेगी? कब नीले जल मेँ तैरती मछलियाँ, अपना पथ भूलेँगीँ? क्या पानी मेँ भी पथ बनते होँगेँ? होते होँगे, बँदनवार? क्या कोयल भी उडती होगी, निश्चिन्त, गगन पथ निहार? हैँ वलयोँ के द्वार खुले, लहराते नीले जल पर! सागर के वक्षसे उठता, महाकाल का घर्घर स्वर, सृष्टि के प्रथम सृजन सा, तिमिराच्छादीत महालोक बूँद बनी है लहर यहाँ, लहरोँ से उठता पारावार, बहुत सुन्दर.
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हैँ वलयोँ के द्वार खुले, लहराते नीले जल पर! सागर के वक्षसे उठता, महाकाल का घर्घर स्वर, सृष्टि के प्रथम सृजन सा, तिमिराच्छादीत महालोक बूँद बनी है लहर यहाँ, लहरोँ से उठता पारावार, ज्योति पूँज सूर्य उद्`भासित, बादल के पट से झुककर चेतना बनी है नैया, हो लहरोँ के वश, बहती जाती ~ क्षितिज सीमा जो उजागर, काली एक लकीर महीन! वही बनेगी धरा, हरी, वहीँ रहेगी, वसुधा, अपरिमित! गा रही हूँ गीत आज मैँ, प्रलय ~ प्रवाह निनादित~ बजते पल्लव से महाघोष, स्वर, प्रकृति, फिर फिर दुहराती!
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