एक अन्य प्रमुख वजह यह भी है कि रात में नमी की वजह से धूलिकण भारी हो जाते हैं और हवा में मंडराते नहीं हैं जबकि दिनभर की गरमी के बाद ज़मीन की सतह की नमी उड़ जाती है और धूलिकण गायों के एक साथ चलने की वजह से हवा में उड़ने लगते है।
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(महाभारत अनु २ ६ / ३ ०) जैसे गरुण के देखते ही साँप विषरहित हो जाते हैं, वैसे ही गंगा के देखते ही मनुष्य सब पापों से छुट जाते हैं (वही ४४) हवा से उड़े हुए धूलिकण भी कुरुक्षेत्र में जिस किसी पर पड़ेगे, वे अति पापी को मोक्ष में पहुँचा देंगे.
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स्वामी विवेकानंद जब विदेश यात्रा से लौटे और उनसे पूछा गया कि अमेरिका के वैभव अवम भोतिक सम्रद्धि को देखने के बाद उन्हें भारत कैसा लगता है, तो वे तत्काल बोल उठे “ पहले मै भारत से प्रेम करता था, लेकिन वह अब मेरे लिए पुण्यभूमि हो गया है तथा इसका प्रत्येक धूलिकण मेरे लिए तीर्थ बन गया है | ”
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जैसे इधर-उधर उड़ रहे अपवित्र तृण-पत्तों से अधिक दुःखदायक अतिरूक्ष धूलिकण लोगों के मुँह को धूलि-धूसर कर देते हैं और आकाश में बहुत ऊँचे स्थान में चढ़ते हैं, वैसे ही विषयोन्मुख चंचल इन्द्रियों द्वारा अधिक कष्टदायक रूक्ष यौवन भी विषयवासना से उत्पन्न रोगों से लोगों के मुँह को घूसर (रक्तशून्य सफेद) कर देता है और दोषों की परम सीमा में आरूढ़ होता है।।
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प्रश्न: एक बार आपने कहा कि हम सब निरर्थक, धूलिकण समान है | और एक बार आपने कहा कि जीवन में पीछे मुड़कर देखो कि आपने हर चुनौती कैसे पार कर दी ; जान ले कि एक मार्गदर्शक हाथ सदा साथ रहा है | प्रश्न यह है कि अगर हम निरर्थक है तो सबसे पहले यह मार्गदर्शक हाथ क्यों है और अगर है, तो क्या यह कहना उचित है कि हम निरर्थक है?
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