प्रत्येक व्यक्ति, वर्ग, देश यदि दुसरो की उपयोगिता में प्राप्त वस्तु, सामर्थ्य एवं योग्यता का व्यय करे तो एक दुसरे के पूरक हो सकते है और फिर परस्पर स्नेह की एकता बड़ी ही सुगमतापूर्वक सुरक्षित रह सकती है, जो विकास का मूल है | मानव दर्शन १ ७ २
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जो प्राप्त वस्तु से संतुष्ट रहता है और अप्राप्त के लिए दुखी नहीं रहता, जिस हाल में हो उसी में प्रसन्न रहता है और सब कुछ ईश्वर की इच्छा मान कर राजी रहता है वह व्यक्ति दुख से बचा रहता है और जो व्यक्ति दुख से बचना जानता है वह बुद्धिमान है।
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ब्रह्मज्ञ पुरुष पूर्ण सागर के समान शोभित होता है, वह गई हुई (नष्ट हुई) वस्तु की उपेक्षा कर देता है अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिए यत्न नहीं करता और प्राप्त वस्तु का अनुसरण करता है, उसे क्षोभ नहीं होता और निश्चल नहीं होता है अर्थात् स्वाभाविक व्यवहार का त्याग करता हुआ निश्चल नहीं होता है।
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हे शम्भो! आप प्राणिमात्रा के योग क्षेम में, अर्थात् अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति कराने में, और प्राप्त वस्तु की सुरक्षा कराने में, अथवा संसार यात्रा के निर्वाह में, सर्वथा समर्थ हो, और सम्पूर्ण कल्याणों को प्रदान करने में तत्पर हो, इस लोक तथा परलोक के उपयुत्तफ सि (ान्तों के उपदेश में भी कुशल हो।
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किसी दूसरे का भाग तो नहीं खा रहा हूँ? जितनी मुझे मिलनी चाहिए उससे अधिक कर रहा हूँ? अपने कर्तव्य में कमी तो नहीं ला रहा हूँ? जिनको देना चाहिए उनको दिए बिना तो नहीं ले रहा हूँ? इन पाँच प्रश्नों की कसौटी पर यदि अपनी प्राप्त वस्तु को कस लिया जाय तो यह मालूम हो सकता है कि इसमें चोरी तो नहीं है या चोरी का कितना अंश है ।
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