रावी लिखता है (उपन्यास): पुखराज जांगिड़साहित्य और विज्ञान-कथाएँ: मनीष एम गोरे हम देखेंगे: जश्न-ए-फैज़: रिजवानुल हक शिगाफ़: सुमन केशरीकई चाँद थे सरे आसमां: गोपाल प्रधान बाज़ार और साहित्य: प्रभात कुमार मिश्रसमकालीनता और देवीशंकर अवस्थी:
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अब सम्मान तो एक ही रचना को मिल सकता है, किन्तु भगवान दास मोरवाल का उपन्यास काला पहाड, और मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास शिगाफ़ हमें हमेशा अपनी याद दिलाता रहेगा कि कई बार एक से अधिक महत्वपूर्ण रचनाएं प्राप्त होने से निर्णय लेने में कितनी कठिनाई होती है।
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मनीषा कुलश्रेष् ठ का उपन् यास शिगाफ़ पढ़ते हुए मेरी आँखों के आगे बार बार मंझोले कद का गोरा चिट्टा, दुबला-पतला लड़का क् यों आ खड़ा होता है, जो 1999-2000 के आस पास कश् मीरी विस् थापितों के लिए चंदा मांगने आता था-हम कैंप में रह रहे हैं..
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' कठपुतलियाँ ' ' शालभंजिका ' ' केयर ऑफ़ स्वात घाटी ' ' बौनी होती परछाई ', ' गन्धर्व-गाथा ' जैसे कहानी संग्रह, लघु उपन्यास और ' शिगाफ़ ' जैसे चर्चित उपन्यास से साहित्यजगत में बहुत ही कम समय में अपनी एक अलग पहचान बना चुकी सहज, सरल, सहृदय और विनम्र कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ से कहीं ना कहीं कविता-पाठ में अक्सर मुलाकात हो जाती है.
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देखो जब ज़मीन काो ज़लज़ला आ जाएगाा और क़यामत अपनी अज़ीम मुसीबतों के साथ खड़ी हो जाएगी और हर इबादतगाह के साथ उसके इबादत गुज़ार, हर माबूद के साथ उसके बन्दे और हर क़ाबिले इताअत के साथ उसके मुतीअ व फ़रमाबरदार मुलहक़ कर दिये जाएंगे तो कोई हवा में शिगाफ़ करने वाली निगाह और ज़मीन पर पड़ने वाले क़दम की आहट ऐसी न होगी जिसका अद्ल व इन्साफ़ के साथ पूरा बदला न दे दिया जाए।
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यूं तो शिगाफ़, उपन् यास की प्रोटोगोनिष् ट अमिता के माध् यम से कश् मीर विस् थापन को देखने की कोशिश है जिसकी शुरूआत कश् मीर से भगाए हिन् दुओं के घर से बेघर कर दिए जाने के दर्द से होती है, पर यास् मीन, जुलेखा, नसीम, सुलतान और जमान की कथाओं के माध् यम से शिगाफ़ पूरे के पूरे कश् मीरी अवाम के विस् थापन की पीड़ा को अभिव् यक् त करता है.
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यूं तो शिगाफ़, उपन् यास की प्रोटोगोनिष् ट अमिता के माध् यम से कश् मीर विस् थापन को देखने की कोशिश है जिसकी शुरूआत कश् मीर से भगाए हिन् दुओं के घर से बेघर कर दिए जाने के दर्द से होती है, पर यास् मीन, जुलेखा, नसीम, सुलतान और जमान की कथाओं के माध् यम से शिगाफ़ पूरे के पूरे कश् मीरी अवाम के विस् थापन की पीड़ा को अभिव् यक् त करता है.
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उपन्यासों में जहाँ कुणाल सिंह की “ आदिग्राम उपाख्यान ”, पंकज सुबीर की “ ये वो सहर तो नहीं ” और मनीषा कुलश्रेष्ठ की “ शिगाफ़ ” ने लेखनी के अविश्वसनीय जादूगरी से रूबरू करवाया तो कहानियों में ज्ञानपीठ का संकलन “ लोकरंगी प्रेम-कथाएँ ”, अनुज की “ कैरियर गर्ल-फ्रेंड और विद्रोह ”, नीला प्रसाद की “ सातवीं औरत का घर ”, जयश्री राय की “ अनकही ”, सुभाष चंद्र कुशवाहा की “ बूचड़खाना ”, अखिलेश की “ अँधेरा ” और मनीषा कुलश्रेष्ठ की “ कुछ भी तो रूमानी नहीं ”...
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