सूर्यकांत त्रिपाठी ' निराला‘ की कविता और उसके बाद के रचनाकारों में कवि मुक्तिबोध हों या धूमिल, कुमार विकल हों या पाश, पंजाबी-हिन्दी कविता में तेवर की कविता त्रास तक जाती है, जहाँ से मन के मुहावरे से अर्थ-विस्तार में 'कहीं न कहीं‘ खास हो जाती है।
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@ श्याम जी, शुक्रिया श्याम जी, बस ऐसे ही बात से बात निकलती रहती है और साहित्य भी! @ निर्मल जी, आज जब कहेंगे, बन्दा अर्थ-विस्तार के लिए हाजिर रहेगा, निःसंकोच कहा कीजिये, विलम्ब हो सकता है व्यस्तताओं के चलते पर आपके आदेश का पालन अवश्य होगा:-)
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प्रेम शब्द को ही अर्थ-विस्तार नहीं प्रदान करता है बल्कि जीवन को भी नए अर्थ प्रदान करता है-जब मैंने पहली बार प्यार किया / तो समझा-सपना केवल शब्द नहीं,एक सुंदर गुलाब होता है/ जो एक दिन /आँखों के बियाबान में खिलता है /और हमारे जीने को/देता है एक नया अर्थ/(अर्थ,कि आत्महत्या के विरुद्ध एक नया दर्शन) ।
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केदार जैसे कवि की काव्यभाषा के प्रति बरती गई अतिरिक्त आत्मीयता तक की पहुँच अर्थ-विस्तार में नवीन उद् घाटन करती है. डॉ. कविता वाचक्नवी ने “ केदारनाथ अग्रवाल का काव्यशास्त्र ” विषयक अपने आलेख में मुख्यतया ‘ मित्र-संवाद ' व अन्य चार पुस्तकों की भूमिका के रूप में लिखे गए गद्य-मात्र के विश्लेषण द्वारा उनके काव्य-विमर्श की दृष्टि को प्रतिपादित किया.
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प्रेम शब्द को ही अर्थ-विस्तार नहीं प्रदान करता है बल्कि जीवन को भी नए अर्थ प्रदान करता है-जब मैंने पहली बार प्यार किया / तो समझा-सपना केवल शब्द नहीं, एक सुंदर गुलाब होता है / जो एक दिन / आँखों के बियाबान में खिलता है / और हमारे जीने को / देता है एक नया अर्थ / (अर्थ, कि आत्महत्या के विरुद्ध एक नया दर्शन) ।
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मैं समझता हूँ कि सूर के जो अध्येता वल्लभ सम्प्रदाय के पुष्टिमार्ग में दीक्षित नहीं हैं, और जिन्होंने आचार्यश्री की कृतियों का अपेक्षित अध्ययन नहीं किया है, उन्हें भी सूर-काव्य न केवल अपने सशक्त चुम्बकीय गुणों के साथ आकृष्ट करता है, अपितु अपनी प्रभावक अभिव्यक्ति, नाटकीय प्रस्तुति, गतिशील चित्रात्मकता, सूक्ष्म अवलोकन दृष्टि, रंगों, बिम्बों, ध्वनियों और आकारों की अंतरंग एकस्वरता और उनकी अर्थ-विस्तार क्षमता के कारण अपना अदभुत प्रशंसक बना देता है.
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दृश्य विधा होने के नाते जब नाटक का मंचन होता है तो वही पाठक एक दर्शक के रूप में तब्दील हो जाता है और मैं यह भी मानता हूँ कि नाटक के शब्द की यात्रा मेरी कलम से शुरू होकर जब वह मंच पर अभिनय, संगीत, वेशभूषा आदि अनेक कलाओं के कंधों पर सवार होकर दृश्य-बिम्बों और मूर्त-प्रतीकों में उपस्थित होती है तो लिखे हुए शब्द का अर्थ-विस्तार होता है, एक ही शब्द की कई-कई ध्वनियाँ और नाट्य-रचना में मौजूद सवालों और मुद्दों का तेवर कुछ तीखा होकर दर्शक तक पहुँचता है।
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