मेरी चरणसेवा में प्रीति रखनेवाले और मेरी ही प्रसन्नता के लिए समस्त कार्य करनेवाले कितने ही बड़भागी भक्त, जो एक दूसरे से मिलकर प्रेमपूर्वक मेरे ही पराक्रमों की चर्चा किया करते है, मेरे साथ एकीभाव (सायुज्यमोक्ष) की भी इच्छा नहीं करते ।
42.
भावार्थ इस प्रकार हुआ-‘‘ जो पुरुष अंतरात्मा में ही सुखवाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्ययोगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है।
43.
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ भावार्थ: जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है॥ 31 ॥ आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
44.
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥ भावार्थ: क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत है, जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है॥ 27 ॥ युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
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यदि ऐसा हो गया तो ऐसा योगी जिसका मन भली प्रकार शान्त है, जिसका रजोगुण दूर हो गया है तथा जिसने सभी प्रकार के पापों से पल्ला छुड़ा लिया है-उसे सच्चिदानंदघन परमात्मा के साथ एकीभाव प्राप्त हो परमानंद की उपलब्धि होती है (श्लोक २ ७) ।
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ियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं॥3-4॥
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ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ भावार्थ: सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है॥ 29 ॥ यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
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भगवान कृष्ण ने भगवत गीता में इस दिव्य आनन्द की बारीकी से इस प्रकार व्याख्या की है-“बाहर के विष्यों में आसक्तिरहित अन्तःकरण वाला पुरूष अन्तःकरण में जो भगवत ध्यान जनित आनन्द है उसको प्राप्त होता है (और) वह पुरूष सच्चिदानन्दधन परब्रह्म परमात्मारूप योग में एकीभाव से स्थित हुआ अक्षय आनन्द को अनुभव करता है”।
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(श्लोक १ ५, १ ६) अब श्रीकृष्ण भक्तियोग की सीढ़ी पर अर्जुन को चढ़ाते हैं व कहते हैं कि अपनी मन-बुद्धि को वह परमात्मा में विलय कर दे, अपनी निष्ठा आदर्शों के समुच्चय परमात्मा में रखे तथा तत्परायण (उन्हीं परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से स्थित) बनने की कोशिश करे।
50.
भावार्थ: जो साक्षी के सदृश स्थित हुआ गुणों द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणों में बरतते (त्रिगुणमयी माया से उत्पन्न हुए अन्तःकरण सहित इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों में विचरना ही 'गुणों का गुणों में बरतना' है) हैं-ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता॥23॥
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