अब अकेला ही पसरा हूँ अपने ख्यालों के साथ संवेदिक स्मरणशक्ति प्रयत्न करती है तुम्हे फिर जिलाने को अवयव उलझे, कुंचित, आश्वासक हैं शायद मैं भी धीरे धीरे खो जाऊं निद्रा में और खो जाऊं महत्वाकांशी स्वप्न नगरी में वापस तुम्हारे पा स...
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झारखण्ड के जंगलों जैसी दाढ़ी वाले एंकर को आप इस तरह भी पहचान सकते हैं कि वह महादेवी वर्मा जैसा चश्मा लगाए रहता था-आप कह सकते हैं वह छायावादी लगता था वैसा ही रोमांटिक वैसा ही आल बाल जाल वैसा ही केश कुंचित भाल
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मूझे पता चला मधुरे तू भी पागल बन रोती है, जो पीङा मेरे अंतर में तेरे दिल में भी होती है लेकिन इन बातों से किंचिंत भी अपना धैर्य नही खोना मेरे मन की सीपी में अब तक तेरे मन का मोती है, ओ सहज सरल पलकों वाले! ओ कुंचित घन अलकों वाले!
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किन्तु तपोबल से अपनाया हुआ अन्धापन भी दूर होता ही है-उर्वशी और तिलोत्तमा को देखकर नहीं, ऊब से फैले हुए जमुहाए मुख-विवरों को और तिरस्कार से कुंचित भवों को देखकर! एक क्षण ऐसा आया कि शेखर समूची सभा की उपेक्षा की और अनदेखी नहीं कर सका-अपनी बात की गति दूनी तेज करके भी नहीं...
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कानन कुंडल कुंचित केसा॥ ४ ॥ आप महान वीर और बलवान हैं, वज्र के समान अंगों वाले, ख़राब बुद्धि दूर करके शुभ बुद्धि देने वाले हैं, आप स्वर्ण के समान रंग वाले, स्वच्छ और सुन्दर वेश वाले हैं, आपके कान में कुंडल शोभायमान हैं और आपके बाल घुंघराले हैं॥ हाथ वज्र औ ध्वजा बिराजै।
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कर्णप्रिय भ्रमर गीत, माली का पोषण कर सकती है? सुमनों के सौरभ हार, सजा सकते है कुंचित केश बिखरा सकते है खुशबू, बन सकते देवो का अभिषेक पर क्या ये सजा सकते है, दीन-हीन आँखों में ख्वाब? क्षुधा शांत गेहूं ही करता, फिर मन भाता है गुलाब नाच उठा मयूर आजकल दिल्ली प्रवास चल रहा है, कल शाम को अचानक काले बादल आए और पुरे शहर पर छा गए. शाम को ५ बजे ही घनघोर अँधेरा.
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इसी जगह, इसी मेहराब के नीचे खड़े कभी अधनंगे अहोम राज ने अपने गठीले शरीर को दर्प से अकड़ा कर, सितार की खूँटी की तरह उमेठ कर, बाँयें हाथ के अँगूठे को कमरबन्द में अटका कर, सीढ़ियों पर खड़े क्षत-शरीर राजकुमारों को देखा होगा, जैसे कोई साँड़ खसिया बैलों के झुण्ड को देखे, फिर दाहिने हाथ की तर्जनी को उठा कर दाहिने भ्रू को तनिक-सा कुंचित करके, संकेत से आदेश किया होगा कि यन्त्रणा को और कड़ी होने दो।
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मैं देव-सृष्टि की रति-रानी निज पंचबाण से वंचित हो, बन आवर्जना-मूर्ति दीना अपनी अतृप्ति-सी संचित हो, अवशिष्ट रह गईं अनुभव में अपनी अतीत असफलता-सी, लीला विलास की खेद-भरी अवसादमयी श्रम-दलिता-सी, मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ मैं शालीनता सिखाती हूँ, मतवाली सुन्दरता पग में नूपुर सी लिपट मनाती हूँ, लाली बन सरल कपोलों में आँखों में अंजन सी लगती, कुंचित अलकों सी घुँघराली मन की मरोर बनकर जगती, चंचल किशोर सुन्दरता की मैं करती रहती रखवाली, मैं वह हलकी सी मसलन हूँ जो बनती कानों की लाली।“ ”हाँ, ठीक, परन्तु बताओगी मेरे जीवन का पथ क्या है?
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