निस्संदेह ऐसी संकेतावलियों में हर युग और सभ्यता अपनी नैतिक अवनति और दुरावस्था का प्रतीकभास देखते आये हैं और भले ही मानव-जाति या सृष्टि का अंत अभी न हुआ हो, महर्षि वेदव्यास विरचित 'महाभारत' में वर्णित दुर्दांत अपशकुन, दु:स्वप्न और कुलक्षण इस इक्कीसवीं सदी में अधिक प्रासंगिक, आसन्न और अवश्यंभावी प्रतीत हो रहे हैं.
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कोमलता के पास रहने की जो अदूरदर्शी वक़ालत करते हैं वो भले लोग (? ‘भले'? अरे, हू यू आर किडिंग?) भूल जाते हैं कि फिर बाद में भी पास कोमलता ही रहेगी, दु:स्वप्न दूर ही रहेगा और सपना रहेगा, वास्तविक प्रीतिकर दु:स्वप्न जो हैं हमारे दुश्मनों के पास जाएंगे, ऐसी अप्रीतिकर स्थिति के लिए हम तैयार हैं?
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कोमलता के पास रहने की जो अदूरदर्शी वक़ालत करते हैं वो भले लोग (? ‘भले'? अरे, हू यू आर किडिंग?) भूल जाते हैं कि फिर बाद में भी पास कोमलता ही रहेगी, दु:स्वप्न दूर ही रहेगा और सपना रहेगा, वास्तविक प्रीतिकर दु:स्वप्न जो हैं हमारे दुश्मनों के पास जाएंगे, ऐसी अप्रीतिकर स्थिति के लिए हम तैयार हैं?
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सूरज की कविता-कविता से बाहर पाँव रखते हुए कविता से बाहर पाँव रखते हुए सुथरे निथरे दराज से चूहे निकलते हैं, डरे हुए दिमाग से दु:स्वप्न फाईलें कागज से अटी पड़ी हैं,यादाश्त शब्दों से दफ्तर के जँगले जिनके बाहर वो हरा है जो कविता नहीं, भारी पत्थर है समय की नस पर पड़ गया है.
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ताशमहल की तरह ढहते पुराने या निर्माणाधीन (अक्सर अवैध) नए मकान, बदहाल सड़कें, जलभराव से अदृश्य बने फुटपाथ, वाहन चालकों के दु:स्वप्न बने सड़कों पर बिछे जर्जर जड़ों वाले उखड़े पेड़, ट्रैफिक जाम और बिना ढक्कन वाले मेनहोलों से भलभलाकर सड़क पर उफनाते शहरी नाले; यह आज मानसूनी महीनों के दौरान देश के तकरीबन हर बड़े शहर का न
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प्रूस्त और बोदेलेयर बनने के तो उसके अरमान नहीं ही होते, वॉल्टर बेन्यामिन बनने का तो वह अपने दु:स्वप्न में भी नहीं सोचता, फिर हिंदी सिनेमा ही ऐसी क्यों बौड़म हो कि अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारे? साहित्य को तो साहित्यकार के यार लोग ही हैं जो अपने सिर लिए रहते हैं, हिंदी सिनेमा की दिलदारी का तो व्यापक विस्तार भी है, देश में ही नहीं, समुंदरों पार भी है.
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इस अंतोत्सवकारी किलक को सुना जा रहा है, इस किलक में लोग अपने अनुभवों की गूँज सुन पा रहे हैं ऐसी स्थिति बनने में इस सचाई का योगदान नहीं नकारा जा सकता कि ईसापूर्व रोमन इतिहास के ग्लेडियटर स्पार्टाकस को रहनुमा के रूप में रचने बीसवीं सदी के हावर्ड फास्ट को अहसास हुआ कि जिस सपने पर भरोसा कर उन्होंने अपना स्पार्टाकस रचा था, वह सपना सपना नहीं दु:स्वप्न साबित हुआ।
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जिन्हे नींद न आती हो उन्हें सोते समय भी लेटे-लेटे इसी प्रकार ध्यान करते हुये सोना चाहिये! ऐसा करने से निद्रा भी योग मयी हो जाती है व दु:स्वप्न से भी छुटकारा मिलता है तथा निद्रा शीघ्र व प्रगाढ आयेगी! तीन से पांच मिनट तक प्रत्येक मनुष्य को ध्यान अवश्य करना चाहिये जिससे साधक सैल्फ हीलिंग व सैल्फ रियलाइजेशन की स्थिति को प्राप्त कर लेता है!
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मगर फिर, बात अज्ञेय के परिमार्जन से निकलकर उग्र के भदेस अश्लील में आकर उलझ जाती है, मतलब दीखने और सुनने लगता है कि अभी भी कुछ ऐसे नरपुंग व नरबानव हैं जो दु:स्वप्न की इस आह्लादकारी महासभा में सुख के प्रचंडत्व से लाभान्वित होने से बाज आ रहे हैं, और केवड़े की कुल्फी का आनंद लेने की जगह अभी भी पिटे हुए पुरातन यथार्थवादिता के धूल में पंकित हो रहे हैं, गर्द में हिचकिचाते हुए नहा रहे हैं.
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हार्वर्ड के मनोवैज्ञानिक डीयरड्रे बैरेट की 1996 की पुस्तक ट्रॉमा एंड ड्रीम्स में पहली बार वर्णित इमेजरी रिहर्सल चिकित्सा में पीड़ित व्यक्ति से उस दु: स्वप्न के एक वैकल्पिक और उसके ऊपर हावी होने वाले परिणाम के बारे में सोंचने और जागृत अवस्था में उस परिणाम का अभ्यास करने के लिए कहा जाता है, और उसके बाद सोते समय उससे स्वयं को याद दिलाने के लिए कहा जाता है कि यदि वह दु:स्वप्न फिर से आये तो उसकी परिणति उसके द्वारा अभ्यास किये गए वैकल्पिक परिणाम के रूप में ही हो.
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