जब हमारे सपनों की लौ बुझने से ठीक पहले वाली लपलपाहट में अचानक गगनचुंबी आकार ले रही थी तब इसे शाश्वत ने सबसे पहले भाँप लिया था और वैकल्पिक रोजगार की तलाश में यहाँ-वहाँ सिर मारना शुरू कर दिया था।
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लेकिन हकीकत यह हैं की अक्सर एक दूसरे से बेज़ार हुए पति-पत्नी जब एक दूसरे की रिपोर्ट-कार्ड में परफोर्मेंस-वइस, पासिंग-मार्क्स भी नहीं देते हैं, तभी वे व्यर्थ में अपने को-तीसमारखां सिद्ध-करने के चक्कर में यहाँ-वहाँ मारे-मारे फिरते हैं.
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आप में से कई लोगों को भी अपने जीवन से जुड़ी तीस साल पुरानी बातें याद होंगी-बचपन की अठखेलियाँ, लड़कपन की शैतानियाँ, जवानी के दिनों में यहाँ-वहाँ मस्ती, कुछ ख़ास दोस्तों के साथ दिल्लगी, रूठना मनाना, नौकरी की तलाश, पहली पगार, कभी ख़ुशी तो कभी उदासी के पल.
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इन्हें गले में डालकर वे चुनाव प्रचार के लिए निकलते हैं और शहर में यहाँ-वहाँ घूम कर, सिनेमा देखकर, लड़कियों को छेड़कर और कभी-कभी पिट-पिटाकर रात को कार्यालय वापस आते हैं और चुनाव प्रभारी को अपनी रिपोर्ट देते हैं कि इस गमछे में दो-तीन सौवोट बंधे हैं।
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कई लोग या तो सधे हुए विशेष निहितार्थों से (जिसकी सम्भावना कहीं ज्यादा है) या फिर गहरे पानी में पैठ पाने की अपनी असहजता में नितांत लापरवाही से शब्दों और विचारों को चुन लेते हैं और बेहद सुविधाजनक चयन के द्वारा हरेक-माल शैली में यहाँ-वहाँ चिपकाते चलते हैं।
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यही हाल जितेन्द्र भाटिया, अशोक अग्रवाल और विश्वेश्वर का था, जो ज्ञान, दूधनाथ, कालिया, वग़ैरा साठोत्तरी कहानीकारों से अलग एक छवि बनाना चाहते थे और लगभग साज़िशी अन्दाज़ में यहाँ-वहाँ मिस्कोट करते हुए, नज़र न आने की कोशिश के बावजूद नज़र आने से बच नहीं पाते थे।
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हम यूँ धोती-कुरते, लुंगी-पाजामों और कच्छों में यहाँ-वहाँ घूमते नज़र आ गए तो हमारी आधुनिक कार्पोरेटिव छवि को कितना धक्का लगेगा, देश की कितनी बदनामी होगी! विकसित देशों के लोग कहेंगे भारत में सभ्यता नाम की चीज़ अब भी नहीं है लोग अभी भी धोती-कुर्ता, कच्छा-पाजामा पहनकर सड़क पर चले आते हैं।
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भन भन करते आते मच्छर, मंडराते हैं पास में यहाँ-वहाँ और गली-गली, क्या खोली मकान में सुबह शाम हो दिन या रात, जुट जाते ये काम में ख़ून चूसना इनको भाता, शोर मचाते कान में रुका हुआ पानी है ख़तरा, साफ़-सफाई रक्खो भइया ये हैं रोगों के बाराती, आफ़त डाले जान में।
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साँस लेते हैं आराम से कितने ही जीवन लहलहाता रहता है किनारों का विश्वास उसके ही नाम से शान्त विस्तार में जब, उभर आते हैं कई टापू उसकी धारा में यहाँ-वहाँ तब अविभाजित बहने का उसका संकल्प बिखर जाता है न जाने कहाँ नदी बँट जाती है, कई धाराओं में धाराएं होतीं जातीं हैं क्रमशः क्षीण, मन्थर...
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मेरा-तेरा का भाव मन में न आये. मेरा लड़का अछ्छा कमाने लगे,वो दुनिया में अछ्छा काम करे,मेरा नाम रोशन करे.मेरी लड़की की शादी अछ्छे घर में हो,उसका पति उसे खूब प्यार करे,वो सदा हसते-मुस्कुराते रहे,जब मइके में आये तो घर की खूब प्रशंशा करे.मैं अपनी बुढिया के साथ प्यारे से घर में आराम से रहूँ,कार में यहाँ-वहाँ जाऊं-आऊँ,बड़े प्रेम से लोगों से हाथ मिलाऊँ,अपने बच्चों का गुणगान कर पाऊँ....आदि इछ्यायें अगर न हों तो आदमी बड़े चैन से जीवन का लुत्फ़ उठा सकता है.
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