1. हेतु का सोपाधिक होना व्याप्यत्वासिद्ध दोष कहलाता है। 2. सोपाधिक हेतु को भी अन्यथासिद्ध कहा गया है।3. हेतु का सोपाधिक होना व्याप्यत्वासिद्ध दोष कहलाता है। 4. शास्त्रों में ' नर' पद से प्रणवात्मक सोपाधिक ब्रह्म कहा गया है। 5. इस उपाधि से युक्त होने के कारण वह्नि रूप हेतु सोपाधिक होता है। 6. वही द्रष्टा, श्रोता, मंता, विज्ञाता इत्यादि है जो अक्षर ब्रह्म का सोपाधिक स्वरूप है। 7. शब्द और अर्थ का सम्बन्ध संकेत पर ईश्वरेच्छा पर अवलम्बित है, सोपाधिक है। 8. तुरीया-वह स्थिति, जिसमें सोपाधिक अथवा कोषावेष्टित जीवन की संपूर्ण स्मृतियां समाप्त हो जाती हैं। 9. अर्थातः-प्रणव धनुषहै, (सोपाधिक ) आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। 10. इस एकीकरण के फलस्वरूप गतियां अधिक स्वचालित, चेतना के नियंत्रण से मुक्त और सोपाधिक प्रतिवर्तों से मिलती-जुलती बन जाती हैं।