अकुलाई sentence in Hindi
pronunciation: [ akulaae ]
"अकुलाई" meaning in English"अकुलाई" meaning in HindiSentences
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- पुरे शहर में जाम का बोलबाला, धूल की चादर में लपटी अकुलाई भीड़, सम्हालना देवों के ही वश की बात है.
- दूसरी पेट की आग जिससे तड़पते बच्चों को जिलाने के लिए अकुलाई मां ने दो ईंटें रख कर चूल्हा बनाया और फिर जलाई आग..
- बूढ़े पीपल ने आगे बढ़ कर जुहार की ' बरस बाद सुधि लीन्ही' बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की हरसाया ताल लाया पानी परात भर के।
- छोटे ख़याल सी अल्हड़ चपलाई चंचलताई.... कजरी की अकुलाई तरुणाई... आली मोरे अंगना आज... पिया गुनवंत आवन को हैं... प्रिय के रंग चूनर रंगाई....
- महाकवि तुलसीदास राम से बिछोह का शब्द चित्र रचते हुए हमसे कहते हैं कि राम रूपी जीवन जल के वियोग से अकुलाई हुई प्रजा चित्र लिखी-सी रह गई है।
- कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहीं मालती श्रीवास्तव ने ‘ बढ़ती जनसंख्या, भविष्य के विचार से, अकुलाई धरती जनसंख्या के भार सेÓ इस प्रेरणादायी कविता के माध्यम से जनसंख्या नियंत्रण का संदेश दिया।
- तब मेरी पीड़ा अकुलाई! जग से निंदित और उपेक्षित, होकर अपनों से भी पीड़ित, जब मानव ने कंपित कर से हा! अपनी ही चिता बनाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई!
- तब मेरी पीड़ा अकुलाई! जग से निंदित और उपेक्षित, होकर अपनों से भी पीड़ित, जब मानव ने कंपित कर से हा! अपनी ही चिता बनाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई!
- उसी कोमल कंपन में अकुलाई (इठलाई नहीं) बोली-पता नहीं, प्रिये, सब इतना सुखकर है, आह्लादकारी है फिर भी मन में जाने क् या है कि कुछ मुरझाया-मुरझाया सा लगता है..
- दुर्गा-शक्ति-नागपाल अपनी रक्षा करना नामर्दों, आदि-शक्ति अकुलाई है आज किसी मर्दानी ने फिर से तलवार उठाई है जात-धर्म की राजनीत झूटी-टोपी, तेरी छद्म-प्रीत क्षण भर न चलने देगी वो स्त्री-शक्ति है परम जीत …
- नन्हे मचल रहे हाथों और पैरों के आघात सहे...हाथों के झूले मे मुझको अपने तू दिन रात लिए...मूक शब्द तब इन नैनों के तू ही एक समझती थी...रुदन कभी जो मेरा सुनती तू अकुलाई फिरती थी...अंजाने इस जग में मेरे तू ही प्रेम भरा घन थी..
- नन्हे मचल रहे हाथों और पैरों के आघात सहे...हाथों के झूले मे मुझको अपने तू दिन रात लिए...मूक शब्द तब इन नैनों के तू ही एक समझती थी...रुदन कभी जो मेरा सुनती तू अकुलाई फिरती थी...अंजाने इस जग में मेरे तू ही प्रेम भरा घन थी..रोता हंसता और बिलखता माँ तू मेरा...
- शिनाख़्त करो-इसलिए चीखो-“किसकी है यह कलम? ” “”किसकी है यह दवात?“ पुकारो-”कौन है यह अधमरा बूढ़ा? किसकी है यह पोटली? कौन है मालिक इस लुढ़के मनई का? बौआई भीड़ का? हेरायी बछिया का? अकुलाई जनता का? कौन है माई-बाप इस बच्चे का?” ख़बरदार! मानव-बम हो सकता है!
- भरता नहीं ये जख्म कभी … अपनी सलाख़ों से ही गोद-गोद कर जो बनाएं हैं … भाव-प्रेम-स्नेह-करुणा डूबती है इस लहू-आंगन में शोर तड़पते रुह की … तिमिर-गहराई में लुप्त हो जाती है, बढ़ती तपीस … धधकती ज्वाला में प्रतिबद्धता अकुलाई है … बढ़ते हुए इस अनजाते दर्द से मानवता भरमाई है …
- तपती धूप में झुलसी, अकुलाई, प्यासी चिड़िया, हाँफते-हाँफते अपने घोंसले में आई और सोते चिड़े को जगाते हुए बोली-अजी सुनते हो! मैं प्यास से मरी जा रही हूँ तुम हो कि बादल ओढ़ कर सोए हो? अरे! उठो भी, दो बूंद हमें भी पिला दोगे तो तुम्हारा क्या जायेगा?
- तुम्हें जब नज़र भर देखा जगी आसक्ति अकुलाई नयन में बँद कर देखा उमड़ कर भक्ति भर आई हमें जी जान से ज़्यादा जिये संबंध प्यारे हैं मगर हम भाग्य के दर पर मिले अनुबंध हारे हैं कभी तुम टूटते दिल की कोई आवाज़ सुन पाते कभी पढ़ते नयन में मौन सी भाषा निमंत्रण की हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की
- नाश से डरे हुए जंगल ने उनके भीतर रोप दीं अपनी सारी वनस्पतियां आग न लग जाए कहीं, वन्ध्या न हो जाए धरती की कोख सो, अकुलाई धरती ने शर्मो-हया का लिबास फेंक जिस्म पर उकेरा खजाने का नक्शा आँखों में लिख दिया पहाड़ों ने अपनी हर परत के नीचे गड़ा गुप्त ज्ञान कुबेर के कभी न भरने वाले रथ पर सवार हो आये वे उन्मत्त आये अबकी वसंत में उतार रहे गर्दन.
- नाश से डरे हुए जंगल ने उनके भीतर रोप दीं अपनी सारी वनस्पतियां आग न लग जाए कहीं, वन्ध्या न हो जाए धरती की कोख सो, अकुलाई धरती ने शर्मो-हया का लिबास फेंक जिस्म पर उकेरा खजाने का नक्शा आँखों में लिख दिया पहाड़ों ने अपनी हर परत के नीचे गड़ा गुप्त ज्ञान कुबेर के कभी न भरने वाले रथ पर सवार हो आये वे उन्मत्त आये अबकी वसंत में उतार रहे गर्दन.
- नाश से डरे हुए जंगल ने उनके भीतर रोप दीं अपनी सारी वनस्पतियां आग न लग जाए कहीं, वन्ध्या न हो जाए धरती की कोख सो, अकुलाई धरती ने शर्मो-हया का लिबास फेंक जिस्म पर उकेरा खजाने का नक्शा आँखों में लिख दिया पहाड़ों ने अपनी हर परत के नीचे गड़ा गुप्त ज्ञान कुबेर के कभी न भरने वाले रथ पर सवार हो आये वे उन्मत्त आये अबकी वसंत में उतार रहे गर्दन.
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