छपते-छपते sentence in Hindi
pronunciation: [ chhepte-chhept ]
"छपते-छपते" meaning in EnglishSentences
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- इस समय कोलकाता से प्रभातखबर, दैनिक जागरण, नई दुनिया, राजस्थान पत्रिका, विश्वमित्र, जनसत्ता, छपते-छपते आदि अनेक दैनिक प्रकाशित हो रहे हैं।
- उसका अनुमान था कि यह सीरीज छपते-छपते बीमा कंपनी के जासूसों की जांच रपट का भी सत्यापन हो जाएगा और उसके छपने के बाद सारे पाखंड के चिथड़े उड़ जाएंगे।
- ख़बरों की गुणवत्ता पर नज़र डालें तो आंनद बाज़ार, आजकाल, वर्तमान, जुगांतर, अमृत बाज़ार, विश्वामित्र, छपते-छपते जैसे अख़बारों से इसकी ख़बरें अलग होती थीं।
- उसका अनुमान था कि यह सीरीज छपते-छपते बीमा कंपनी के जासूसों की जांच रपट का भी सत्यापन हो जाएगा और उसके छपने के बाद सारे पाखंड के चिथड़े उड़ जाएंगे।
- छपते-छपते: हाईकोर्ट के आदेश पर दिल्ली के कुछ इलाकों में ब्लू लाइन को चलते रहने की अनुमति फिलहाल मिल गयी है इसलिए अब इन इलाकों के लोगों का भगवान ही मालिक है.
- छपते-छपते [सं-पु.] दैनिक समाचार पत्र में किसी नियत स्थान पर दिए जाने वाले समाचार जो आख़िरी समय में मिलते हैं और जिन्हें किसी दूसरे समाचार को हटाकर दिया जाता है।
- महानगर के छपते-छपते पत्रसमूह द्वारा हिन्दी पत्रकारिता दिवस के उपलक्ष्य में 30 मई की शाम हिन्दी पत्रकारिता के 186 वर्ष: एक सिंहावलोकन विषय पर कार्यक्रम का आयोजन भारतीय भाषा परिषद प्रेक्षगृह में किया।
- छपते-छपते: हाईकोर्ट के आदेश पर दिल्ली के कुछ इलाकों में ब्लू लाइन को चलते रहने की अनुमति फिलहाल मिल गयी है इसलिए अब इन इलाकों के लोगों का भगवान ही मालिक है.
- अंधा युग ', राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली ने ‘ राजा ईडिपस ', अनामिका ने ‘ छपते-छपते ', मूनलाइट ने ‘ सीता बनवास ' व ‘ रामलीला नौटंकी ', श्री आर्ट्स क्लब, दिल्ली ने ‘
- गर्दभ-समाचार से छपते-छपते ताज़ा अपडेट: कुछ हंसों के विरुद्ध झूठे पर्चे बाँटने का प्रयास चारों खाने चित्त होने के बाद खिसियानी लोमड़ी जंगल के चीतों को कोरा बेवक़ूफ़ समझकर उन्हें बाघ के खिलाफ़ लामबन्द करने की उछलकूद में लगी है।
- अब तक प्रकाशित पुस्तकें: “अजनबी शहर में”, “संदर्भ”, “जंगल और हम” (कविता संग्रह),“शहर में आखिरी दिन”, “एक और वापसी”, “उसके हिस्से में”,“इक्कीस कहानियां” (कहानी संग्रह), कई एक चेहरे, आखर, छपते-छपते (उपन्यास), कोहरे की घाटी में, एक खूबसूरत सपना (यात्रा-वृतान्त), समाचार पत्रों की दुनिया में (पत्रकारिता)।
- कुल मिलाकर प्रेस क्लब में निरंतर सक्रिय दिखने वाले प्रमुख स्थानीय हिंदी अखबारों प्रभात खबर, राजस्थान पत्रिका, सन्मार्ग, विश्वमित्र, छपते-छपते, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, भारत मित्र, जनसत्ता के पत्रकार अपनी वह उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाए, जिसकी कि इनसे उम्मीद थी।
- पतलू भाई का परिणाम एक बार फिर आया और अनुक्रमांक अख़बार में छपते-छपते रह गया जबकि इस बार तो अनुक्रमांक एक सम संख्या थी और लोकसभा मार्ग पर बैठे ज्योतिषाचार्य के तोते ने जो चिठ्ठी निकाली थी उस हिसाब से तो पतलू भाई को उत्तीर्ण हो जाना चाहिए था।
- चाहे वे कितनी भी महत्त्वपूर्ण, अप्रत्याशित, नवीन या बहुसंख्यक पाठकों की लोक-अभिरुचि की क्यों न हांे? उन्हें अंततः ‘ छपते-छपते ' काॅलम के अन्तर्गत ही संतोष करना पड़ता है या फिर अगले दिन की ‘ प्रतीक्षा-सूची ' में जगह पाने के लिए होड़ करना होता है.
- उसकी मौत अख़बार के छपते-छपते कॉलम में ‘ शहर में एक रहस्यमयी दुर्घटना ' शीर्षक के अंतर्गत एक छोटी-सी दो पंक्ति की खबर बनकर रह जाती है और उसी के साथ भ्रष्ट व्यवस्था के असली चेहरों को बेनकाब करने वाली सारी रहस्यमयी जानकारियाँ और सारे सबूत भी हमेशा के लिए विलुप्त हो जाते हैं।
- 1973-1985 तक ‘दैनिक जनयुग ' तथा 1985-1989 तक ‘दैनिक देशबंधु' (म.प्र.) के दिल्ली ब्यूरो में।अब तक प्रकाशित पुस्तकें: “अजनबी शहर में”, “संदर्भ”, “जंगल और हम” (कविता संग्रह),”शहर में आखिरी दिन”, “एक और वापसी”, “उसके हिस्से में”,”इक्कीस कहानियां” (कहानी संग्रह), कई एक चेहरे, आखर, छपते-छपते (उपन्यास), कोहरे की घाटी में, एक खूबसूरत सपना (यात्रा-वृतान्त), समाचार पत्रों की दुनिया में (पत्रकारिता)।
- अगर इतनी तेज़ी से हमारी अर्थव्यवस्था बढ़ती तो देश कहां से कहां पहुंच जाता … अन्ना हज़ारे से पहले सैकड़ों जुड़े तो बाद में उनको समर्थन देने वालों की संख्या हज़ारों में पहुंच गई … मेरा लेख छपते-छपते शायद ये संख्या लाखों में पहुंच जाए … दरअसल, पूरे देश में बढ़ना शब्द जुड़ा कुछ ऐसी चीजों से जुड़ा है, जिनसे शायद कोई ना जुड़ना चाहे … ।
- घर-बाहर ' (रवीन्द्रनाथ ठाकुर, 1961: श्यामानन्द जालान), ‘ छपते-छपते ' (मिहिल सेबेशियन, 1963: श्यामानन्द जालान), ‘ शेष रक्षा ' (रवीन्द्रनाथ ठाकुर, 1963: प्रतिभा अग्रवाल), ‘ मादा कैक्टस ' (लक्ष्मीनारायण लाल, 1964: श्यामानन्द जालान), ‘ छलावा ' (परितोष गार्गी, 1964: प्रतिभा अग्रवाल) एवं ‘ कांचन रंग ' (शंभु मित्र तथा अमित मैत्र, 1965: कृष्ण कुमार) नाटक प्रस्तुत किए गए।
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