समन्तभद्र sentence in Hindi
pronunciation: [ semnetbhedr ]
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- इसके बाद उन्होंने समन्तभद्र की ओर इंगित करके पूछा-वत्स! अब तुम घड़े के बारे में कुछ कहो।
- दूषणोद्धार आप्तमीमांसा में समन्तभद्र ने आप्त की सर्वज्ञता और उनके उपदेश-स्याद्वाद (श्रुत) की सहेतुक सिद्धि की है।
- समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि आचार्यों ने जैन दर्शन का प्रतिपादन करते समय जैन न्याय को छोड़ नहीं दिया था।
- किन्तु वह उतने प्रबल रूप में नहीं हैं, जितने सशक्त रूप में समन्तभद्र के काल में वह उभरकर आई।
- तीर्थंकर समन्तभद्र के हिचकिचाने के कारण जोर से हंस पड़े और बोले-यह ज्ञान का सातवां आयाम है ७.
- इसी से तत्वार्थसूत्र के टीकाकार समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्द आदि मुनियों ने बड़े ही श्रद्धापूर्ण शब्दों में इनका उल्लेख किया।
- समन्तभद्र की यह अनोखी, किन्तु सही अहिंसक दृष्टि भारतीय दार्शनिकों, विशेषकर उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों के लिए मार्गदर्शन सिद्ध हुई।
- समन्तभद्र के उत्तरवर्ती जैन तार्किक आचार्य अकलंक ने कुमारिल के इस आक्षेप का जवाब देते हुए कहा हैं *:-
- यहाँ धर्मकीर्ति ने स्पष्टतया समन्तभद्र के ' सर्वथा एकान्त के त्यागपूर्वक किंचित् के विधानरूप ' स्याद्वाद लक्षण * का खण्डन किया है।
- सिद्धसेन दिवाकर ने समन्तभद्र के द्वारा की गई परिभाषा का समर्थन तो किया है, किन्तु उसमें एक विशेषण बढ़ा दिया है।
- इसी से तत्वार्थसूत्र के टीकाकार समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्द आदि मुनियों ने बड़े ही श्रद्धापूर्ण शब्दों में इनका उल्लेख किया।
- राईस ने समन्तभद्र को तेजपूर्ण प्रभावशाली वादी लिखा है और बताया है कि वे सारे भारतवर्ष में जैनधर्म का प्रचार करनेवाले महान् प्रचारक थे।
- पर उन दोनों का जितना विशद, विस्तृत और व्यावहारिक प्रतिपादन समन्तभद्र की कृतियों में * उपलब्ध है, उतना उनसे पूर्व नहीं है।
- प्रतीत होता है कि समन्तभद्र ने भारतीय दार्शनिक एवं तार्किक क्षेत्र में जैन दर्शन और जैन न्याय के युग प्रवर्तक का कार्य किया है।
- इन चार भंगों को दिखलाकर वचन की शक्यता और अशक्यता के आधार पर समन्तभद्र ने अपुनरुक्त तीन भंग और बतलाकर सप्तभंगी संयोजित की है।
- समन्तभद्र ने स्याद्वाद द्वारा सप्तभंगनयों (सात उत्तर वाक्यों) से 44 अनेकान्तरूप वस्तु की व्यवस्था का विधान किया और उस विधान को व्यावहारिक भी बनाया।
- आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि तपस्वी (साधु) वही है ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन रहता है-' ज्ञान-ध्यान-तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।
- इस ग्रंथ में जैन श्रावक की चर्या का वर्णन है आचार्य समन्तभद्र देव ने जैन श्रावक कैसा होना चाहीए इसके बारे में विस्तार से बताया है
- समन्तभद्र ने * स्पष्ट घोषणा की कि ' निरपेक्ष इतर तिरस्कार पक्ष सम्यक नहीं है, सापेक्ष-इतर संग्राहक पक्ष ही सम्यक (सत्य प्रतिपादक) है।
- आचार्य समन्तभद्र ने सभी तीर्थंकरों को ' स्याद्वादी ' कहकर उनके उपदेश को बहुत स्पष्ट रूप में स्याद्वाद-न्याय, जिसमें दर्शन भी अंतर्भूत है, बतलाया है।
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