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सूर्यभानु गुप्त sentence in Hindi

pronunciation: [ sureybhaanu gaupet ]
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  • जहां तक इन पर पर पाबंदी का सवाल है, एक क्षणिका याद आती है जो तीन दशक पहले बिहार में जगन्नाथ मिश्र द्वारा लाए गए प्रेस बिल की प्रतिक्रिया में सूर्यभानु गुप्त ने लिखी थी-‘ करते हैं कमाल फ़ैसले तुगलक / बांधना था तो बांधते दरिया / धूप को बांधने चले तुगलक।
  • जहां तक इन पर पर पाबंदी का सवाल है, एक क्षणिका याद आती है जो तीन दशक पहले बिहार में जगन्नाथ मिश्र द्वारा लाए गए प्रेस बिल की प्रतिक्रिया में सूर्यभानु गुप्त ने लिखी थी-‘ करते हैं कमाल फ़ैसले तुगलक / बांधना था तो बांधते दरिया / धूप को बांधने चले तुगलक।
  • ग़ज़ल की जब बात आएगी तो जनाब रघुपति सहाय फ़िराक गोरखपुरी, आनंद नारायण मुल्ला, त्रिलोक चंद ' महरूम ', पंडित लभ्भूराम जोश मलसियानी, कुमार पाशी, कृष्ण बिहारी नूर, कुंवर महेंद्र सिंह बेदी ' सहर ', कुंवर बैचैन, दुष्यंत कुमार, सूर्यभानु गुप्त, बाल स्वरुप राही आदि का जिक्र किये बिना अधूरी रहेगी.
  • संस्था के महामंत्री सुरेशचंद्र शर्मा ने बताया कि अब तक परिवार पुरस्कार से बाबा नागार्जुन, कवि प्रदीप, शरद जोशी, गोपाल दास नीरज, भारत भूषण, हरीश भदानी, नईम, सोम ठाकुर, माहेश्वर तिवारी, कन्हैयालाल नंदन, सूर्यभानु गुप्त, कैलाश गौतम, कुँअर बेचैन और बुद्धिनाथ मिश्र जैसे रचनाकारों को सम्मानित किया जा चुका है।
  • वरिष्ठ नवगीतकार / ग़ज़लकार माहेश्वर तिवारी ने दुष्यंत कुमार के बाद हिंदी ग़ज़ल पर विचार देते हुए लिखा कि दुष्यंत कुमार के बाद, भवानी शंकर, सूर्यभानु गुप्त, विनोद तिवारी, महेश अनघ, शिव ओम अंबर, ज़हीर कुरैशी, मधुरिमा सिंह, माधव मधुकर आदि ने ग़ज़ल लेखन के प्रति, अपने गंभीर रचनात्मक जुड़ाव से उसकी संभावनाओं को आगे बढ़ाने का काम किया।
  • दुष्यंत के बाद हिंदी ग़ज़ल परंपरा में शंभुनाथ सिंह, नरेन्द्र वशिष्ठ, भवानी शंकर, चंद्रसेन विराट, शेरजंग गर्ग, कुंअर बेचैन, नित्यानंद तुषार, ज़हीर कुरैशी, डॉ. सूर्यभानु गुप्त, गिरिराजशरण अग्रवाल, राजेश रेड्डी, विज्ञान व्रत, तुफैल चतुर्वेदी, डॉ. उर्मिलेश जैसे ग़ज़लकारों के अलावा बशीर बद्र और निदा फाज़ली जैसे उर्दू लहज़े के शायरों का नाम लिया जा सकता है।
  • बम्बई में हस्ती जी को शाइरी का अच्छा माहौल मिला, मरहूम सुदर्शन फ़ाकिर, ताजदार ताज, निदा फ़ाज़ली, कैसर-उल-ज़ाफरी और सूर्यभानु गुप्त की सोहबतों में हस्ती साहब की शाइरी को और फलने-फूलने का मौक़ा मिला उनका पहला मज़्मुआए क़लाम “ क्या कहें किस से कहें ” भी 80 के दशक के आख़िर में मंज़रे-आम पे आया जिसे महाराष्ट्र साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत भी किया।
  • वीरेन्द्र मिश्र गीत के होकर ही रह गए तथा आखिरी वर्षों में उन्होंने नदी की धार कटेगी तो नदी रोएगी जैसा मर्म स्पर्शी गीत हिंदी को दिया रोमान और अवसाद की गलियों में ले जाने वाले किशन सरोज के कुछ गीत भी भले लगे और हाल ही में प्रकाशित सूर्यभानु गुप्त का गीतशाम के वक्त कभी घर में अकेले न रहो भी, जो हर अकेले शख्स का जैसे अपना गीत बन गया।
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