‘विचार-प्रवाह ' के ‘मानव-सत्य' शीर्षक निबंध में उन्होंने लिखा है-“जिस काव्य या नाटक या उपन्यास के पढ़ने से मनुष्य में अपने छोटे संकीर्ण स्वार्थों के बन्धन से मुक्त होने की प्रेरणा नहीं मिलती तथा ‘महान एक' की अनुभूति के साथ अपने-आपको दलित द्राक्षा के समान निचोड़ कर ‘सर्वस्य मूलनिषेचनं' के प्रति तीव्र आकांक्षा नहीं जाग उठती, वह काव्य और वह नाट्य और वह उपन्यास दो कौड़ी के मोल का भी नहीं है।”‘चारु-चन्द्रलेख' में उन्होंने अक्षोभ्य भैरव से कहलवाया है-‘‘देख रे, अर्थशास्त्र और धर्मशास्त्र हर समय साथ-साथ नहीं चलते।
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