संस्कृत में इसे सर्षप, सिद्धार्थ, गौरसर्षप, कटुस्नेह, भूतनाशन
3.
सर्षप पी ली मालती, ली ली लक्त लसोड़ ।
4.
४ राजसर्षप = १ गौर सर्षप; २ गौर सर्षप = १ यवमध्य
5.
अन्यथा पर्वत और सर्षप में तुल्य परिमाणता हो जाएगी, जो अनुभव विरुद्ध है।
6.
ऐसी परिस्थिति में सर्षप तथा पर्वत दोनों ही अनन्त अवयवविशिष्ट होने से दोनों की तफलय परिमाणता मानने में कोई बाधा नहीं होगी।
7.
आयुर्वेदीय संहिताओं में इसका वर्णन प्रचुरता से मिलता है संस्कृत में इसे सर्षप, सिद्धार्थ, गौरसर्षप, कटुस्नेह, भूतनाशन एवं आसुरी नामों से जाना जाता है।
8.
आशय यह है कि बुद्ध का शरीर पार्थिव नहीं है, अत: उसमें सर्षप (सरसों) के बराबर भी धातु नहीं है तथा उनका शरीर धर्ममय एवं नित्य है।
9.
इस अवयव-विभाग का यदि कहीं अन्त नहीं हो तो जैसे पर्वत के अवयव विभाग का अन्त नहीं है वैसे सर्षप (सरसों) के अवयव विभाग का भी अन्त नहीं होगा।
10.
इक केवल बलराम के कारण माताएं दो गर्भवती, शून्य सी जानकर शीर्ष पर धारण करता जो पृथ्वी शेषावतार नागाधिराज को सर्षप सा मान कर देवकी विधि विधान मानते हुए स्व-उदर में हैं धारण करतीं ।।
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